लोगों की राय

बहुभागीय पुस्तकें >> अष्टावक्र महागीता भाग-1 मुक्ति की आकांक्षा

अष्टावक्र महागीता भाग-1 मुक्ति की आकांक्षा

ओशो

प्रकाशक : फ्यूजन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :306
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 7267
आईएसबीएन :81-89605-71-1

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

396 पाठक हैं

अष्टावक्र महागीता भाग-1 मुक्ति की आकांक्षा

इस पुस्तक का सेट खरीदें
Ashtavakra Mahageeta bhag-1 Mukti Ki Akanksha - A Hindi Book - by Osho

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

...तुम मुझे जब सुनो तो ऐसे सुनो जैसे कोई किसी गायक को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो जैसे कोई किसी कवि को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि जैसे कोई कभी पक्षियों के गीतों को सुनता है, या पानी की मरमर को सुनता है, या वर्षा में गरजते मेघों को सुनता है। तुम मुझे ऐसे सुनो कि तुम उसमें अपना हिसाब मत रखो। तुम आनंद के लिए सुनो। तुम रस में डूबो। तुम यहां दुकानदार की तरह मत आओ। तुम यहां बैठे-बैठे भीतर गणित मत बिठाओ कि क्या इसमें से चुन लें और क्या करें, क्या न करें। तुम मुझे सिर्फ आनंद-भाव से सुनो।

स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा ! स्वान्तः सुखाय... सुख के लिए सुनो। उस सुख में सुनते-सुनते जो चीज तुम्हें गदगद कर जाए, उसमें फिर थोड़ी और डुबकी लगाओ। मेरा गीत सुना, उसमें जो कड़ी तुम्हें भा जाए, फिर तुम उसे गुनगुनाओ; उसे तुम्हारा मंत्र बन जाने दो। धीरे-धीरे तुम पाओगे कि जीवन में बहुत कुछ बिना बड़ा आयोजन किए घटने लगा।

अनुक्रम


१. सत्य का शुद्धतम वक्तव्य
२. समाधि का सूत्र : विश्राम
३. जैसी मति वैसी गति
४. कर्म, विचार, भाव–और साक्षी
५. साधना नहीं–निष्ठा; श्रद्धा
६. जागो और भोगो
७. जागरण महामंत्र है
८. नियंता नहीं–साक्षी बनो
९. मेरा मुझको नमस्कार
१॰. हरि ऊँ तत्सत्

प्रवचन : १

सत्य का शुद्धतम वक्तव्य

जनक उवाच।

कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेतद् ब्रूहि मम प्रभो।।1।।

अष्टावक्र उवाच।

मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान् विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोषसत्यं पीयूषवद् भज।।2।।
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुद्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्दि मुक्तये।।3।।
यदि देहं पृथक्कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शांतः बंधमुक्तो भविष्यसि।।4।।
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।।5।।
धर्माऽधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न तो विभो।
न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।।6।।

एक अनूठी यात्रा पर हम निकलते हैं। मनुष्य-जाति के पास बहुत शास्त्र हैं, पर अष्टावक्र-गीता जैसा शास्त्र नहीं। वेद फीके हैं। उपनिषद बहुत धीमी आवाज में बोलते हैं। गीता में भी ऐसा गौरव नहीं; जैसा अष्टावक्र की संहिता में है। कुछ बात ही अनूठी है !
सबसे बड़ी बात तो यह कि न समाज, न राजनीति, न जीवन की किसी और व्यवस्था का कोई प्रभाव अष्टावक्र के वचनों पर है। इतना शुद्ध भावातीत वक्तव्य, समय और काल से अतीत, दूसरा नहीं है। शायद इसीलिए अष्टावक्र की गीता, अष्टावक्र की संहिता का बहुत प्रभाव नहीं पड़ा।

कृष्ण की गीता का बहुत प्रभाव पड़ा। पहला कारण : कृष्ण की गीता समन्वय है। सत्य की उतनी चिंता नहीं है जितनी समन्वय की चिंता है। समन्वय का आग्रह इतना गहरा है कि अगर सत्य थोड़ा खो भी जाए तो कृष्ण राजी हैं।
कृष्ण की गीता खिचड़ी जैसी है; इसलिए सभी को भाती है, क्योंकि सभी का कुछ न कुछ उसमें मौजूद है। ऐसा कोई संप्रदाय खोजना मुश्किल है जो गीता में अपनी वाणी न खोज ले। ऐसा कोई व्यक्ति खोजना मुश्किल है जो गीता में अपने लिए कोई सहारा न खोज ले। इन सबके लिए अष्टावक्र की गीता बड़ी कठिन होगी।

अष्टावक्र समन्वयवादी नहीं है–सत्यवादी हैं। सत्य जैसा है वैसा कहा है–बिना किसी लाग-लपेट के। सुनने वाले की चिंता नहीं है। सुनने वाला समझेगा, नहीं समझेगा, इसकी भी चिंता नहीं है। सत्य का ऐसा शुद्घतम वक्तव्य न पहले कहीं हुआ, न फिर बाद में कभी हो सका।
कृष्ण की गीता लोगों को प्रिय है, क्योंकि अपना अर्थ निकाल लेना बहुत सुगम है। कृष्ण की गीता काव्यात्मक है : दो और दो पांच भी हो सकते हैं, दो और दो तीन भी हो सकते हैं। अष्टावक्र के साथ कोई खेल संभव नहीं। वहां दो और दो चार ही होते हैं।

अष्टावक्र का वक्तव्य शुद्ध गणित का वक्तव्य है। वहाँ काव्य को जरा भी जगह नहीं है। वहाँ कविता के लिए जरा सी भी छूट नहीं है। जैसा है वैसा कहा है। किसी तरह का समझौता नहीं है।
कृष्ण की गीता पढ़ो तो भक्त अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने भक्ति की भी बात की है, कर्मयोगी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने कर्मयोग की भी बात की है; ज्ञानी अपना अर्थ निकाल लेता है, क्योंकि कृष्ण ने ज्ञान की भी बात की है, कृष्ण कहीं भक्ति को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं, कहीं कर्म को सर्वश्रेष्ठ कहते हैं।

कृष्ण का वक्तव्य बहुत राजनैतिक है। वे राजनेता थे–कुशल राजनेता थे ! सिर्फ राजनेता थे, इतना ही कहना उचित नहीं–कुटिल राजनीतिज्ञ थे, डिप्लोमैट थे। उनके वक्तव्य में बहुत सी बातों का ध्यान रखा गया है। इसलिए सभी को गीता भा जाती है। इसलिए तो गीता पर हजारों टीकाएं हैं; अष्टावक्र पर कोई चिंता नहीं करता। क्योंकि अष्टावक्र के साथ राजी होना हो तो तुम्हें अपने को छोड़ना पड़ेगा। बेशर्त ! तुम अपने को न ले जा सकोगे। तुम पीछे रहोगे तो ही जा सकोगे। कृष्ण के साथ तुम अपने को ले जा सकते हो। कृष्ण के साथ तुम्हें बदलने की कोई भी जरूरत नहीं है। कृष्ण के साथ तुम मौजूं पड़ सकते हो।

इसलिए सभी सांप्रदायिकों ने कृष्ण की गीता पर टीकाएं लिखीं–शंकर ने, रामानुज ने, निम्बार्क ने, बल्लभ ने, सबने अपने अर्थ निकाल लिए। कृष्ण ने कुछ ऐसी बात कही है जो बहु-अर्थी है। इसलिए मैं कहता हूँ, काव्यात्मक है। कविता में से मनचाहे अर्थ निकल सकते हैं।
कृष्ण का वक्तव्य ऐसा है जैसे वर्षा में बादल घिरते हैं : जो चाहो देख लो। कोई देखता है हाथी की सूंड़; कोई चाहे गणेश जी को देख ले। किसी को कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता–वह कहता है, कहां की फिजूल बातें कर रहे हो ? बादल हैं ! धुआं–इसमें कैसी आकृतियां देख रहे हो ?

पश्चिम में वैज्ञानिक मन के परीक्षण के लिए स्याही के धब्बे ब्लाटिंग पेपर पर डाल देते हैं और व्यक्ति को कहते हैं, देखो, इसमें क्या दिखाई पड़ता है ? व्यक्ति गौर से देखता है। उसे कुछ न कुछ दिखाई पड़ता है। वहां कुछ भी नहीं है सिर्फ ब्लाटिंग पेपर पर स्याही के धब्बे हैं–बेतरतीब फेंके गए, सोच-विचार कर भी फेंके नहीं गए हैं, ऐसे ही बोतल उंडेल दी है। लेकिन देखने वाला कुछ न कुछ खोज लेता है। जो देखने वाला खोजता है वह उसके मन में है; वह आरोपित कर लेता है।
तुमने भी देखा होगा : दीवाल पर वर्षा का पानी पड़ता है लकीरें खिंच जाती हैं। कभी आदमी की शक्ल दिखाई पड़ती है, कभी घोड़े की शक्ल दिखाई पड़ती है। तुम जो देखना चाहते हो, आरोपित कर लेते हो।

रात के अंधेरे में कपड़ा टंगा है–भूत-प्रेत दिखाई पड़ जाते हैं।
कृष्ण की गीता ऐसी ही है–जो तुम्हारे मन में है, दिखाई पड़ जाएगा। तो शंकर ज्ञान देख लेते हैं, रामानुज भक्ति देख लेते हैं, तिलक कर्म देख लेते हैं–और सब अपने घर प्रसन्नचित्त लौट आते हैं कि ठीक, कृष्ण वही कहते हैं जो हमारी मान्यता है।
इमर्सन ने लिखा है कि एक बार एक पड़ोसी प्लेटो की किताबें उनसे मांग कर ले गया। अब प्लेटो दो हजार साल पहले हुआ–और दुनिया के थोड़े से अनूठे विचारकों में से एक। कुछ दिनों बाद इमर्सन ने कहा, किताबें पढ़ ली हों तो वापस कर दें। वह पड़ोसी लौटा गया। इमर्सन ने पूछा, कैसी लगीं ? उस आदमी ने कहा ठीक। इस आदमी, प्लेटो के विचार मुझसे मिलते-जुलते हैं। कई दफे तो मुझे ऐसा लगा कि इस आदमी को मेरे विचारों का पता कैसे चल गया ! प्लेटो दो हजार साल पहले हुआ है; इसको शक हो रहा है कि इसने कहीं मेरे विचार तो नहीं चुरा लिए !

कृष्ण में ऐसा शक बहुत बार होता है। इसलिए कृष्ण पर, सदियां बीत गई, टीकाएं चलती जाती हैं। हर सदी अपना अर्थ खोज लेती है; हर व्यक्ति अपना अर्थ खोज लेता है। कृष्ण की गीता स्याही के धब्बों जैसी है। एक कुशल राजनीतिज्ञ का वक्तव्य है।
अष्टावक्र की गीता में तुम कोई अर्थ न खोज पाओगे। तुम अपने को छोड़ कर चलोगे तो ही अष्टावक्र की गीता स्पष्ट होगी।
अष्टावक्र का सुस्पष्ट संदेश है। उसमें जरा भी तुम अपनी व्याख्या न डाल सकोगे। इसलिए लोगों ने टीकाएं नहीं लिखीं। टीका लिखने की जगह नहीं है; तोड़ने-मरोड़ने का उपाय नहीं है; तुम्हारे मन के लिए सुविधा नहीं है कि तुम कुछ डाल दो। अष्टावक्र ने इस तरह से वक्तव्य दिया है कि सदियां बीत गईं, उस वक्तव्य में कोई कुछ जोड़ नहीं पाया, घटा नहीं पाया। बहुत कठिन है ऐसा वक्तव्य देना। शब्द के साथ ऐसी कुशलता बड़ी कठिन है।

इसलिए मैं कहता हूँ, एक अनूठी यात्रा तुम शुरू कर रहे हो।
अष्टावक्र में राजनीतिज्ञों की कोई उत्सुकता नहीं है–न तिलक की, न अरविंद की, न गांधी की, न विनोबा की, किसी की कोई उत्सुकता नहीं है। क्योंकि तुम अपना खेल न खेल पाओगे। तिलक को उकसाना है देश-भक्ति, उठाना है कर्म का ज्वार–कृष्ण की गीता सहयोगी बन जाती है।

कृष्ण हर किसी को कंधा देने को तैयार हैं। कोई भी चला लो गोली उनके कंधे पर रख कर, वे राजी हैं। कंधा उनका, पीछे छिपने की तुम्हें सुविधा है, और उनके पीछे से गोली चलाओ तो गोली भी बहुमूल्य मालूम पड़ती है।
अष्टावक्र किसी को कंधे पर हाथ भी नहीं रखने देते। इसलिए गांधी की कोई उत्सुकता नहीं है; तिलक की कोई उत्सुकता नहीं है; अरविंद विनोबा को कुछ लेना-देना नहीं है। क्योंकि तुम कुछ थोप न सकोगे। राजनीति की सुविधा नहीं है। अष्टावक्र राजनीतिक पुरुष नहीं हैं।

यह पहली बात खयाल में रख लेनी जरूरी है। ऐसा सुस्पष्ट, खुले आकाश जैसा वक्तव्य, जिसमें बादल हैं ही नहीं, तुम कोई आकृति देख न पाओगे। आकृति छोड़ोगे सब, बनोगे निराकर, अरूप के साथ जोड़ोगे संबंध तो अष्टावक्र समझ में आएंगे। अष्टावक्र को समझना चाहो तो ध्यान की गहराई में उतरना होगा, कोई व्याख्या से काम होने वाला नहीं है।
और ध्यान के लिए भी अष्टावक्र नहीं कहते कि तुम बैठ कर राम-राम जपो। अष्टावक्र कहते हैं : तुम कुछ भी करो, वह ध्यान न होगा। कर्ता जहां है वहां ध्यान कैसा ? जब तक करना है तब तक भ्रांति है। जब तक करने वाला मौजूद है तब तक अहंकार मौजूद है।

अष्टावक्र कहते हैं : साक्षी हो जाना है ध्यान–जहां कर्ता छूट जाता है, तुम सिर्फ देखने वाले रह जाते हो, द्रष्टा-मात्र ! द्रष्टा-मात्र हो जाने में ही दर्शन है। द्रष्टा-मात्र हो जाने में ही ध्यान है। द्रष्टा-मात्र हो जाने में ही ज्ञान है।
इसके पहले कि हम सूत्र में उतरें, अष्टावक्र के संबंध में कुछ बातें समझ लेनी जरूरी हैं। ज्यादा पता नहीं है, क्योंकि न तो वे सामाजिक पुरुष थे, न राजनीतिक, तो इतिहास में कोई उल्लेख नहीं है। बस थोड़ी सी घटनाएं ज्ञात हैं–वे भी बड़ी अजीब, भरोसा करने योग्य नहीं; लेकिन समझोगे तो बड़े गहरे अर्थ खुलेंगे।

पहली घटना–अष्टावक्र पैदा हुए उसके पहले की; पीछे का तो कुछ पता नहीं है–गर्भ की घटना। पिता–बड़े पंडित। अष्टावक्र–मां के गर्भ में। पिता रोज वेद का पाठ करते हैं और अष्टावक्र गर्भ में सुनते हैं। एक दिन अचानक गर्भ से आवाज आती है रुको भी। यह सब बकवास है। ज्ञान इसमें कुछ भी नहीं–बस शब्दों का संग्रह है। शास्त्र में ज्ञान कहां ? ज्ञान स्वयं में है। शब्द में सत्य कहां ? सत्य स्वयं में है।

पिता स्वभावतः नाराज हुए। एक तो पिता, फिर पंडित ! और गर्भ में छिपा हुआ बेटा इस तरह की बात कहे ! अभी पैदा भी नहीं हुआ ! क्रोध में आ गए, आगबबूला हो गए। पिता का अहंकार चोट खा गया। फिर पंडित का अहंकार ! बड़े पंडित थे, बड़े विवादी थे, शास्त्रार्थी थे। क्रोध में अभिशाप दे दिया कि जब पैदा होगा तो आठ अंगों से टेढ़ा होगा। इसलिए नाम–अष्टावक्र। आठ जगह से कबड़े पैदा हुए। आठ जगह से ऊँट की भांति इरछे-तिरछे ! पिता ने क्रोध में शरीर को विक्षत कर दिया।

ऐसी और भी कथाएं है।
कहते हैं, बुद्ध जब पैदा हुए तो खड़े-खड़े पैदा हुए। मां खड़ी थी वृक्ष के तले। खड़े-खड़े... मां खड़ी थी... खड़े-खड़े पैदा हुए। जमीन पर गिरे नहीं कि चले, सात कदम चले। आठवें कदम पर रुक कर चार आर्य-सत्यों की घोषणा की, कि जीवन दुख है–अभी सात कदम ही चले हैं पृथ्वी पर–कि जीवन दुख है; कि दुख से मुक्त होने की संभावना है; कि दुख-मुक्ति का उपाय है कि दुख-मुक्ति की अवस्था है, निर्वाण की अवस्था है।

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book